सोशल मीडिया: अपनी पहचान खोता एक छलावा
एक समय था जब सोशल मीडिया को परिवर्तन का हथियार माना जाता था, लेकिन आज यह एक ऐसी विकृति बन चुका है जो समाज को खोखला कर रही है। तकनीक के इस आभासी संसार ने जहां दुनिया को जोड़ने का वादा किया था, वहीं आज यह अलगाव, मानसिक तनाव और गलत सूचनाओं का अड्डा बन चुका है।

द एक्सपोज़ लाइव न्यूज़ नेटवर्क इंदौर
सोशल मीडिया: युवा वर्ग की मक्कारी का मंच
आज सोशल मीडिया पर सबसे अधिक प्रभावशाली वही आयु वर्ग है, जो 19 वर्ष से कम है। यह युवा पीढ़ी, जो कल के कर्णधार कहे जाते थे, आज सोशल मीडिया की आभासी दुनिया में इतना लिप्त हो चुके हैं कि उन्हें वास्तविक समाज से कोई सरोकार ही नहीं रह गया। वे झूठी प्रसिद्धि, लाइक्स और ट्रेंड्स के पीछे भागते हैं, जिससे उनका मानसिक और सामाजिक विकास प्रभावित हो रहा है। यह एक तरह से मक्कारी और कृत्रिम जीवनशैली को बढ़ावा देने वाला मंच बन चुका है।
संस्कृति और संस्कारों पर प्रहार
हमारी संस्कृति हमें सिखाती है कि जीवन का मूल उद्देश्य आत्म-विकास और समाज सेवा है, लेकिन सोशल मीडिया ने इसे केवल आत्म-प्रचार तक सीमित कर दिया है। पहले परिवार के बड़े बुजुर्ग ज्ञान का भंडार होते थे, लेकिन आज उनकी बातें सुनने के बजाय लोग सोशल मीडिया पर अधूरी और भ्रामक जानकारी को सच मानते हैं। यही कारण है कि अब कई माता-पिता और दादा-दादी इस आभासी दुनिया से अपने बच्चों को दूर रखने का प्रयास कर रहे हैं। वे समझ चुके हैं कि सोशल मीडिया संस्कारों के क्षरण का एक बड़ा कारण बन चुका है।
गलत सूचना और मानसिक विकृति का केंद्र
एक जमाना था जब व्हाट्सएप ग्रुप और फेसबुक पेज समाज में संदेश फैलाने का जरिया थे, लेकिन आज इतने अधिक ग्रुप और पेज बन चुके हैं कि उन पर साझा की गई जानकारी का कोई महत्व ही नहीं रह गया। झूठी खबरें, अफवाहें और दुष्प्रचार ने सोशल मीडिया को एक असत्य और अविश्वसनीय मंच बना दिया है। लोग बिना सत्यता जांचे किसी भी बात पर यकीन कर लेते हैं और समाज में अनावश्यक भय और तनाव फैलता है।
सोशल मीडिया का अंत निकट?
सोशल मीडिया के नकारात्मक प्रभावों को देखते हुए अब समाज में इसकी स्वीकार्यता धीरे-धीरे कम होती जा रही है। कई माता-पिता अपने बच्चों को इससे दूर रखने के लिए कड़े कदम उठा रहे हैं। बुजुर्ग पीढ़ी, जो पहले सोशल मीडिया का सक्रिय उपयोग करती थी, अब इससे दूरी बना रही है। समय के साथ यह आभासी दुनिया अपनी विश्वसनीयता और पहचान खोती जा रही है। जिस प्रकार असत्य का अस्तित्व लंबे समय तक नहीं रहता, उसी प्रकार सोशल मीडिया भी धीरे-धीरे अपनी पकड़ खो रहा है।
सोशल मीडिया कभी सूचना और जागरूकता का सशक्त माध्यम था, लेकिन आज यह एक नकारात्मक शक्तियों का गढ़ बन चुका है। संस्कारों के संरक्षण और सत्य के मार्ग पर चलने के लिए हमें इसे त्यागने की दिशा में सोचना होगा। अन्यथा, यह हमारी आने वाली पीढ़ी को एक ऐसे खोखले भविष्य की ओर धकेल देगा, जहां वास्तविकता से उनका कोई संबंध नहीं रहेगा।
भारतीय संस्कार बनाम सोशल मीडिया: कौन जीतेगा?
प्रयागराज में चल रहे महाकुंभ में जहां पूरे विश्व से लगभग 50 करोड़ श्रद्धालु पवित्र गंगा में स्नान करने पहुंचे, वहीं इनमें से 10 करोड़ तो सिर्फ इसलिए आए थे कि सोशल मीडिया पर अपनी "धार्मिक" रीलें बना सकें। यह देख कर यह तो साफ हो जाता है कि भले ही कुछ लोग अपनी श्रद्धा को डिजिटल लाइक्स और व्यूज़ में बदलने में लगे हों, लेकिन भारतीय संस्कारों की गहराई के आगे पश्चिमी प्रभाव की कोई औकात नहीं।
ईश्वर की भक्ति एक नितांत व्यक्तिगत विषय है, लेकिन कुछ सोशल मीडिया प्रेमियों और उनके अनुयायी पत्रकारों ने इसे तमाशा बना दिया। किसी को विश्व सुंदरी घोषित कर दिया गया, तो किसी को युगपुरुष का दर्जा मिल गया—आध्यात्मिकता गई भाड़ में, लाइक्स और कमेंट्स की गिनती जरूरी है!
बेशक, ऐसे लोगों पर धिक्कार है जो श्रद्धा के इस पवित्र संगम को व्यूज़ और ट्रेंडिंग हैशटैग में तब्दील करने पर तुले हैं। लेकिन समय ही इन सोशल मीडिया भक्तों को उनका हश्र दिखाएगा। उनके द्वारा गढ़े गए खोखले मूल्य और "वर्चुअल संतानों" की उम्र बहुत अधिक नहीं होगी। अंततः जीत भारतीय संस्कृति और मूल्यों की ही होगी—क्योंकि संस्कार दिखावे से नहीं, बल्कि आत्मा से जीवित रहते हैं!
बुद्धिमानी से किया गया तकनीक का उपयोग हमेशा ताकत बनता है, लेकिन केवल तकनीक पर निर्भरता कहीं न कहीं युवाओं को भटकाने का काम कर रही है। जिस तरह बिजली के बारे में कहा जाता है "A good servant but a bad master", ठीक उसी तरह आज तकनीक भी हमारी सेवा करने के बजाय हम पर हावी होती जा रही है। युवा इसे ही अपनी असली शक्ति समझने लगे हैं, जो आगे चलकर समाज और देश को एक गंभीर संकट में डाल सकता है।