फिर आया सर्वोच्च न्यायलय में भूमि अधिग्रहण 2013 मामले में विरोधाभासी निर्णय

पुणे म्युनिसिपल और इंदौर विकास प्राधिकरण फैसले के बाद अब फिर शुरू हुवा विरोधाभास युग ,पहले ही संविधान के आर्टिकल  14 (समानता का अधिकार ) में विरोधभास स्थिति निर्मित हो चुकी हे ,अगर दोनों फैसलों का अध्ययन करें तो स्थिति और भी स्पष्ट हे ,एक जैसी स्थिति होने के बावजूद किसी को जीवन दान तो किसी को सजा ए मौत !   

फिर आया सर्वोच्च न्यायलय में भूमि अधिग्रहण 2013 मामले में विरोधाभासी निर्णय
image courtesy : bar and bench

द एक्सपोज़ लाइव न्यूज़ नेटवर्क, इंदौर।

सर्वोच्च न्यायलय में हाल ही में एक पुनर्विचार याचिका पर निर्णय देते हुए दो न्यायाधीशों ने अलग अलग फैसला सुनाया ,दरअसल याचिका पुणे मुन्सिपल कारपोरेशन के आधार पर याचिकाकर्ताओं को मिल चुके  लाभ को लेकर लगाई गयी थी ! पुणे मुसिपल कारपोरेशन के फैसले को  5 न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ वर्ष 2020 में ख़ारिज कर चुकी हे !

वर्ष 2020 में न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली संवैधानिक पीठ ने इंदौर विकास प्राधिकरण एवं मनोहर लाल की याचिका पर सुनवाई करते हुए भूमि अधिग्रहण कानून की की कुछ धाराओं को पुनः परिभाषित किया था ,जिसका प्रभाव पुरे  भूमि अधिग्रहण कानून पर अप्रतयक्ष रूप से पड़ गया ! वर्षों से लंबित मामले जहाँ मिनटों में निपटाय जाने लगे थे वहीँ इंदौर विकास प्राधिकरण मामले में आयी परिभाषा से फिर गफलत वाली स्थिति न्यायालाओं के सामने आ गयी !   

क्या है पूरा मामला 

भूमि को अधिग्रहण को लेकर वर्षों से लंबित कानूनी मामलों में वर्ष 2014 में एक नया मोड़ आया जब केंद्र सरकार ने नवीन भूमि अधिग्रहण कानून 2013 बनाया ! नवीन भूमि अधिग्रहण कानून की धारा 24 में भूतलक्षी प्रभाव से अधिग्रहण की कार्रवाई को समाप्त करने का उल्लेख किया गया था, जिसकी मुख्य तीन शर्ते थी 

पहली अवार्ड घोषित होने के 5 वर्ष के अंदर मुआवजा राशि नहीं मिलना !
                            या 
दूसरी अवार्ड घोषित होने के 5 वर्ष के अंदर भूमि का विधिवत कब्जा सरकार द्वारा नहीं ले पाना !

दोनों में से किसी एक शर्त का पूर्ण नहीं होना भूमि अधिग्रहण की संपूर्ण कार्यवाही को निरस्त करने के लिए काफी था,वहीँ  मुआवजे के लिए भी स्पष्ट तौर पर कानून में लिखा था कि अगर मुआवज़े  की राशि खाताधारक के खाते में जमा नहीं की जाती है तो राशि दी जा चुकी नहीं मानी जाएगी ! 

इन्ही शर्तों में संशोधन को लेकर वर्ष 2015 में तत्कालीन केंद्र सरकार ने अध्यादेश के माध्यम से परिवर्तन करने की कोशिश करी लेकिन संपूर्ण देश में किसानों द्वारा विरोध के चलते  सरकार को बैकफुट पर आना पड़ा !  वर्ष 2020 में न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने इन तीनों शर्तों में महत्वपूर्ण परिवर्तन करते हुए एक नई परिभाषा दी जिसमें मुआवजे और कब्जे की शर्तों को अनिवार्य किया गया ,जहां पहले दोनों में से किसी एक का नहीं हो पाना अधिग्रहण की कार्रवाई को निरस्त करने के लिए काफी माना गया ,वही नई  परिभाषा के तहत दोनों शर्तों का नहीं हो पाना ही अधिग्रहण की कार्रवाई को निरस्त कर सकता था !  मुआवजे की राशि के भुगतान के लिए कहा गया की मुआवजे की राशि भू अर्जन अधिकारी के कार्यालय में जमा होना पर्याप्त माना जाएगा ,उसे खाताधारक के खातों में जमा होना जरूरी नहीं है ! 

बेशक संवैधानिक पीठ को लेकर काफी विवादित स्थितियां उत्पन्न होती रही लेकिन अंततः 2020 में यह फैसला आ ही गया और यहीं से विवादित स्थितियां पैदा होने लगी, क्योंकि पुणे मुंसिपल कारपोरेशन के आधार पर सैकड़ों फैसले देश की न्यायलय वर्ष 2018 तक  दे चुकी थी ! इंदौर विकास प्राधिकरण के मामले में आई नई परिभाषा के चलते गफलत की स्थिति पैदा हो गयी, जिन याचिकाकर्ताओं को पुणे मुंसिपल कॉरपोरेशन के आधार पर फायदा हो चुका था और जिन याचिकाकर्ताओं की याचिका वर्ष 2020 के बाद भी लंबित थी पर असमंजस की स्थिति पैदा होने लगी, प्रभावितों का कहना था कि पुणे मुंसिपल कारपोरेशन के आधार पर जिन लोगों को फैसला आ चुका है वह तो जीत की स्थिति में रहे लेकिन हमारी याचिकाएं वर्षों से आज तक भी लंबित है !  उसमें हमारा क्या दोष  है ?  

सर्वोच्च न्यायालय में पुणे मुंसिपल कॉरपोरेशन के आधार पर आ चुके फैसलों पर हार चुकी अधिग्रहण करने वाली एजेंसियों द्वारा पुनर्विचार याचिका लगाई गई जिस पर न्यायमूर्ति एम् आर  शाह और न्यायमूर्ति बी वी नागराथ्ना  ने विरोधाभासी फैसला जारी किया !

जहां न्यायमूर्ति एम आर  शाह के निर्णय का सार है ,चूँकि पुणे मुंसिपल कारपोरेशन का फैसला संवैधानिक पीठ पलट चुकी है अतः उस फैसले के आधार पर  दिए जा चुके फैसला पर पुनर्विचार किया जाएगा  !

वहीं दूसरी ओर न्यायमूर्ति बी वी नागराथ्ना के निर्णय का सारांश  है, अगर ऐसा किया जाता है तो यह अंतहीन होगा क्योंकि पुणे  मुंसिपल कारपोरेशन का फैसला भी संवैधानिक पीठ द्वारा ही दिया गया था बेशक बड़ी पीठ ने उस फैसले को उलट दिया लेकिन जिन याचिकाकर्ताओं को उसके आधार पर फायदा हो चुका है उन पर पुनर्विचार किया जाना विधि सम्मत नहीं होगा ! उन्होंने पुनर्विचार याचिका लगाने के आधारों पर भी टिप्पणी करी और कहा यह पुनर्विचार याचिका उन आधारों के हिसाब से नहीं है!  

मामले में विधि विशेषज्ञों की माने तो अब इस बारे में पुनः बड़ी संवैधानिक पीठ को ही निर्णय करना पड़ेगा ! क्यूंकि जो स्थिति आज निर्मित हो रही हैं इसका अंदेशा पहले से ही लगाया जा रहा था कहीं न कहीं यह दोनों ही निर्णय संविधान के अनुछेद 14 को भी सीधे प्रभावित कर रहें हैं ,लेकिन अब वक्त आ गया हे की जल्द ही इस मामले को न्यायलय द्वारा निपटाया जाये  !

वहीं 40 वर्षों से अपने हक की लड़ाई लड़ रहे एक बुज़ुर्ग किसान का कहना हे : 

6 मार्च 2020 के संवैधानिक पीठ के निर्णय ने सविधान के अनुच्छेद 14 को किसानों के लिए ख़त्म कर दिया । जिन हजारों किसानों को लंबी कानूनी लड़ाई के बाद पुणे मुसीपाल के आदेश में जिन तथ्यों पर जीवनदान मिला । 6 मार्च की निर्णय के बाद उन्हीं तथ्यों पर बचे हुवे किसानों को मृत्यु दंड मिलेगा। उक्त  निर्णय वापस विधि जगत के लिय शोध का विषय बन रहा है की देश की लोकसभा और उसमे पारित कानून के बाद देश की सर्वोस्चय न्यायालय एवं उच्च न्यायालय ने जिनको जीवन दान दिया था उन्हें पुन मृत्यु देने की और ले जा रहा हैं एक मानव जिसकी आयु आज के समय में मूल रुप से 60 वर्ष बची है उसमें भी उसका जीवन क्या न्याय पाने में ही ख़त्म हों जायेगा और इस निर्णय ने सविधान के अनुच्छेद 300 पर भी प्रभाव डाल दिया था  । इसको निराकृत करने हेतु विधि जगत के प्रमुखों को आगे आना होगा ।