अभी-अभी तो थी दुश्मनी, अब बन गए दोस्त कैसे-कैसे..?

मध्य प्रदेश की राजनीति में भी कुछ वर्ष पहले यही हुआ, जब बहुमत लेकर आई कांग्रेस पार्टी के कद्दावर नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया नाराजगी के चलते पार्टी से अलग हुए और अपनी पूरी टीम के साथ भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए। परंपरागत रूप से कट्टर कहे जाने वाले दुश्मनों की दोस्ती ने भारतीय जनता पार्टी को सत्ता तो दिला दी, लेकिन आज यही दोस्ती और दुश्मनी का खेल भारतीय जनता पार्टी के लिए परेशानी का सबब बन गया है।

अभी-अभी तो थी दुश्मनी, अब बन गए दोस्त कैसे-कैसे..?
Scindia - Curtesy India Aware

अभी थमा नहीं है मध्यप्रदेश भाजपा राजनीति में आयतितों की उपासना के दौर से उठा भूचाल

थे कट्टर दुश्मन, बाजी पलटी तो सत्ता का हाथी भी हथियाया और बने संगठन के सिरमौर भी

द एक्सपोज लाइव न्यूज़ नेटवर्क, इंदौर।

ज्ञात शत्रु से लड़ा जा सकता है, अज्ञात से लड़ना आसान नहीं है। बीजेपी के इस  संकट की वज़ह शर्तिया आयात था समर्पित आयात नहीं। अपने स्वार्थ को साधने आए कांग्रेस के सभी लोग कहीं न कहीं भाजपा की रीति-नीति को नहीं समझ पाए  जिसका साक्षी पूरा प्रदेश है।

वर्ष 2018 में कांग्रेस को ज्योतिरादित्य सिंधिया की नाराजगी के चलते बहुमत होने के बावजूद सत्ता से हाथ धोना पड़ा था और सत्ता की कमान भारतीय जनता पार्टी के हाथ में चली गई थी। दोस्ती और दुश्मनी का यह खेल जितना सामान्य  दिखता था, उतना था नहीं।  आरोप-प्रत्यारोप के बीच में सिंधिया  के समर्थक कांग्रेस  छोड़कर भारतीय जनता पार्टी  में शामिल हुए, बेशक  आरोप कुछ भी लगे हों, लेकिन जो दुनिया ने जो देखा, वह, यह था कि सत्ता की एक अच्छी-खासी बागडोर सिंधिया समर्थकों को दे दी गई। 13 मंत्री बने और कई समर्थक निगम और मंडलों में अध्यक्ष के महत्वपूर्ण पद पर भी आसीन हुए। 

कहते हैं सत्ता और राजनीति में हर चीज जायज  है और इन दोनों में दोस्ती और दुश्मनी स्थाई नहीं होती, लेकिन दोस्तों के साथ दुश्मनी और दुश्मनों के साथ दोस्ती जब की जाती है, तो उसका एक दायरा सीमित रखा जाता है, लेकिन वर्ष 2018 में मध्यप्रदेश ने  जो देखा वह कुछ अलग ही था। बाहर से आए इन  आयतित भाजपाइयों ने सत्ता के साथ तो तालमेल स्थापित कर लिया, क्योंकि पद को भी बनाए रखना है।

आयतित मेहमानों को हजम नहीं कर पा रहा संगठन

सत्ता के रास्ते आयतित कार्यकर्ता को लाभन्वित तो कर दिया गया,  परन्तु  संगठन  और छोटे कार्यकर्ता को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया गया।  बीजेपी के अनुवांशिक संगठन को स्वार्थपूर्ति महत्व दिया जाता  रहा,  जो शारीरिक रूप से अभी नही दिखाई दे रहा, पर मानसिक एवं आत्मिक रूप से आगामी चुनाव में अवश्य दिखाई देगी, यदि समय रहते आयतित मेहमानों का आत्मिक और मानसिक विलय बीजेपी में नही हो पाता है। यह चुनावी समर भाजपा के लिए  चुनौतीपूर्ण रहेगा। इसलिए आज स्थिति यह है कि भाजपा के  वरिष्ठ नेताओं ने उपरोक्त कारण से जन्मे विरोध को सबके सामने उजागर कर दिया और संगठन में आयतित नेताओं की भरमार को लेकर पुराने कार्यकर्ताओं में फैल रहे असंतोष को भी जगजाहिर कर दिया।  

धुआं है, मतलब कहीं तो आग लगी ही है..

आज हालात ये हैं कि दिल्ली से लेकर भोपाल तक भारतीय जनता पार्टी में अफवाहों और अनिश्चितता का दौर आ गया है। कभी प्रदेश के संगठन मुखिया तो कभी सरकार के मुखिया को बदलने की अफवाह उड़ चुकी है।  बेशक भाजपा के कद्दावर यह कह रहे हैं कि सब कुछ ठीक है, लेकिन बिना आग के धुआं भी नहीं  उठता।  कहीं ना कहीं आयतित नेताओं के कारण भाजपा की जड़ों पर प्रहार हुआ है और यह प्रहार भी अपनों ने ही आयतित लोगों के लिए किया है। कार्यकर्ताओं की अनदेखी भी हुई है और उसी के कारण उनमें असंतोष ने भी जन्म लिया है। जिसका कारण यह है कि आयात  सजीव स्तर पर अल्पकालीन लाभ के लिये किया, परंतु उसके दीर्घकालीन नुकसान की तरफ़ नहीं देखा गया, जिसकी सुगबुगाहट अब शुरू हो गई है।

आखिर क्यों कठिन है डगर पनघट की..?

अक्सर राजनीति में रूठना मनाना चलता रहता है और यह कोई नई बात नहीं है। अक्सर देखने में आया है कि पार्टी के इक्के दुक्के नेता पार्टियों से रुष्ट हो जाते हैं और उन्हें मना भी लिया जाता है, लेकिन राजनीतिक विशेषज्ञों की बात माने तो इस बार भारतीय जनता पार्टी के लिए यह मुश्किल साबित होता दिख रहा है। उसका कारण भी स्पष्ट है, क्योंकि आयतित वर्ग सिर पर बैठकर आया था, इसलिए इस बार नाराजगी कुछ एक नेताओं में नहीं, बल्कि  उन हजारों सैकड़ों कार्यकर्ताओं में है, जिन्हें आयतित नेताओं के कारण आज अलग-थलग कर दिया गया है।  ऐसा नहीं है कि पार्टी को इनकी  याद नहीं आ रही है, जैसे-जैसे  चुनाव आ रहे हैं वैसे-वैसे पार्टी इनको मनाने की हर संभव कोशिश कर रही है, लेकिन यह सब आज के हालातों में इतना आसान नहीं दिख रहा। 

जहां स्वार्थ है दोस्ती शर्त..!

राजनीतिक विशेषज्ञों का यह भी  मानना है कि अक्सर  दोस्ती और दुश्मनी के ऐसे समीकरण बनते रहते और बिगड़ते रहते हैं। बड़ी पार्टियों के साथ छोटी पार्टियों के  गठबंधन भी लगातार बनते बिगड़ते रहते हैं, लेकिन इस बार मध्यप्रदेश की राजनीति में जो हुआ, वह इतना सामान्य नहीं था, क्योंकि इस बार गठबंधन  राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित पार्टी के दिग्गजों से  सशर्त हुआ था  और जहां शर्त होती है, वहां समर्पण नहीं होता है और यह शर्त जिहोंने रखी, उनका  सत्ता सुख भोगने का गौरवशाली इतिहास भी है।

संगठन में दखल, कैसे हो बर्दाश्त

भाजपा और कांग्रेस परंपरागत रूप से एक-दूसरे के दुश्मन माने जाते हैं और दुश्मनों के सिपाहियों को अपने ही सिपाहियों के ऊपर सेनापति बनाकर बैठा दिया जाए, तो और असंतोष आना भी स्वाभाविक है। कुछ कार्यकर्तओं का कहना है कि  सत्ता में दखल दे दी जाती, तो ज्यादा फर्क नहीं पड़ता, लेकिन समस्या वहां आ गई, जब संगठन में भी आयतित नेताओं की भरमार होने लगी। 

समझ लो नहीं तो...‘समय’ बड़ी ‘शै’ है

बहरहाल चुनौती भजपा के लिए बड़ी है, लेकिन समय भी अभी शेष है, यदि इस आयात से शर्त हट कर समर्पण आ जाए तो लोकतंत्र का भावी पंचवर्षीय त्यौहार भाजपा के लिए  सुधर भी  सकता है और यह तभी संभव है, जब सत्ता का सुख भोग रहे जनप्रतिनिधि बीजेपी की जड़ अर्थात उसके अनुवांशिक संगठन के महत्त्व को समय रहते समझ लें, अन्यथा कलयुग के पुत्रों को पराजय की भेट चढ़ने से  कोई रोक नहीं सकता है।