बहुत याद आते हो तुम कैलाश..!
जो लोग कहते हैं कि कैलाश विजयवर्गीय होने से क्या फर्क पड़ता है, उन्हें इस समय शहर की हालत देख लेना चाहिए और उन दिनों को भी याद कर लेना चाहिए, जब वे महापौर हुआ करते थे आज इंदौर भले ही सफाई में नंबर वन हो, लेकिन इस शहर में एक अजीब से बेचारगी नजर आती है रिकॉर्ड मतों से जीतने वाले और बड़ी-बड़ी डिग्रियों के साथ जन प्रतिनिधित्व करने वाले भी शहर को इस बेचारगी से, इसकी बदहाली से उबरने में नाकाम साबित हो रहे हैं। और इसीलिए आज कैलाश बहुत याद आते हैं।
एक ज़माना था, जब इंदौर की सड़कें बदहाल थी, निगम के पास संसाधनों की कमी थी, शहर विकास की तरफ आशा भरी निगाह से देख रहा था, लेकिन कोई उम्मीद की किरण नहीं दिख रही थी। प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी और निगम में नया नवेला लेकिन एक ज़िद्दी और दिलेर महापौर कैलाश विजयवर्गीय। पहले तो शहर ने इस महापौर से भी ज़यादा उम्मीद नहीं करी, एक मज़दूर का बेटा कोई बड़ी कानून की डिग्री नहीं, न ही को कोई उच्च शिक्षा का प्रमाण पत्र। बस थी तो एक ज़िद शहर हित में जान लगाने की और वो भी हर कीमत पर हर तरीके से।
फिर क्या था इसी कैलाश ने विपरीत परिस्थितियों में ऐसा कमाल किया कि शहर की बदहाल हो चुकी डामर की सड़कों को सीमेंट की चौड़ी सड़कों में तब्दील कर दिया। पाटनीपुरा के संकरे बाजार को आधुनिक बना दिया। भले ही लोगों ने पहले विरोध किया, लेकिन ज़िद तो ज़िद थी। आज वही विरोधी इनके गुणगान करते नहीं थकते। शहर तो ठीक कॉलोनियों की सड़कें पीपीपी मॉडल पर सीमेंट की करवा दीं।
अधिकारी कानून की दुहाई देते रह गए, लेकिन इस ज़िद्दी महापौर ने अधिकारियों की बोलती यह कह कर बंद कर दी कि कानून जनता के लिए होता है या जनता कानून के लिए..? अगर कानून की अड़चन से जनता का नुकसान है, तो कानून बदल दो। अगर कोई अधिकारी सुनता नहीं था, तो इन्हे बाहें चढ़ाने में भी गुरेज नहीं था। कई वाकये ऐसे हुए जब इसी कैलाश ने भरी सभा में बाहें चढ़ाकर स्पष्ट सन्देश दे दिया कि मेरी ज़िद के आगे किसी की नहीं चलने दूंगा। और नियत भी साफ़ थी, तो उसका प्रतिफल शहर को विकास के रूप में देखने को भी मिला।
खैर वो तो मज़दूर का बेटा था, जो अब दिल्ली चला गया। अब तो शहर में कई पढ़े-लिखे जनप्रतिनिधि आ गए। बड़ी बड़ी डिग्री भी उनके पास है और प्रदेश से लगाकर दिल्ली तक पकड़ मजबूत है, फिर भी शहर की बदहाली क्यों हो रही है..? नशाखोरी, ट्रैफिक समस्या, नाईट कल्चर, बेतरतीब विकास, निरंकुश प्रशासन, हत्या, बलात्कार चोरी जैसी बढ़ती वारदातें..। बचा रहा है तो सिर्फ भौतिक स्वछता का तमगा।
ट्रैफिक समस्या को लेकर कोई भी पढ़ा-लिखा जनप्रतिनिधि सोचने को तैयार नहीं। घंटों का जाम, आये दिन के विवाद, बड़ी-बड़ी बसों का संकरी गलियों में संचालन, लेकिन पढ़े-लिखे इन संकरी गलियों में क्यों जाएँ..? ये कोई मज़दूर के बेटे थोड़ी हैं, जो विश्व की सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टी के महासचिव होने के बावजूद दुपहिए पर बैठ कहीं भी निकल पड़ते हैं। शहर के कद्दावर कलेक्टर को भरे मंच से नाम लेकर बाबू कह देते हैं। ये कैलाश ही तो थे, जिन्हें शहर की नब्ज़ आज भी पता है।
बायपास पर लग रहे जाम का कोई निराकरण किसी के पास नहीं। हालांकि कई बार बेचारी जनता समाधान दे चुकी है। 1995 के मास्टर प्लान की मुख्य सड़क एमआर-9 आज भी अधूरी पड़ी है, लेकिन अधिकारी, जनता और जनप्रतिधियों की क्यों सुनेंगे..? सुनना भी नहीं चाहिए, आखिर आईपीएस और आईएएस जो हैं। और अब तो जनप्रतिनिधि भी अपने आपको आईएएस और आईपीएस समझने लगे हैं। क्यूंकि आईएएस और आईपीएस तो जनता के मालिक होते हैं और जनप्रतिनिधि जनता का सेवक, लेकिन फायदा तो मालिक बन कर रहने में ही है ना। मज़दूर का बेटा बन तो सिर्फ देश सेवा ही करना है, इसकी किसे पड़ी है।
बहरहाल पढ़े-लिखे जनप्रतिनिधि अपने-आप को जो भी समझें, एक बात तो शहर स्पष्ट देख पा रहा है कि ये इनके बस की बात नहीं। अब एक बार फिर कैलाश को माँ अहिल्या की नगरी बुला रही है। शहर की जनता भी अब कहने लगी है, कैलाश आओ और अब तांडव करके दिखा ही दो अपना रौद्र रूप, वर्ना न ये शहर बचेगा और बच भी गया तो संस्कृति का नाश तो निश्चित है।
अब तो इंदौर भी मेवाड़ बन कहने लगा है- "मायड़ थारो वो पूत कठे, वो महाराणा परताप कठे..?"