भूमि अधिग्रहण मामलों में अब स्पष्ट होता जा रहा न्यायालयों का रुख
वर्षों से लंबित भूमि अधिग्रहण के मामले में कर्नाटक उच्च न्यायलय का किसानों के हित में फैसला ,२००७ से लंबित मामले को निराकृत करते हुए नविन भूमि अधिग्रहण के तहत मुआवज़ा देने का आदेश
द एक्सपोज़ लाइव न्यूज़ नेटवर्क इंदौर
सर्वोच्च न्यायायल द्वारा इंदौर विकास प्राधिकरण विरुद्ध मनोहर लाल के फैसले के बाद अब कर्नाटक उच्च न्यायलय ने १५ सालों तक अधिग्रहित हो चुकी भूमि का मुआवज़ा नहीं दिए जाने को गंभीरता से लेते हुए राज्य शासन से सवाल करते हुए लुटेरे तक की संज्ञा दे डाली और निर्णय के शुरुआत में ही इन कठोर शब्दों का उपयोग कर डाला :
“Without justice, what else is the State but a
great band of robbers …?”
कर्नाटक उच्च न्यायालय ने कर्नाटक औद्योगिक क्षेत्र विकास बोर्ड (केआईएडीबी) और उसके अधिकारियों के कार्यों पर गहरी नाराज़गी व्यक्त की है,जो लगभग 15 वर्षों तक उन भूस्वामियों को मुआवजा देने में विफल रहे जिनकी संपत्तियां 2007 में सार्वजनिक उद्देश्य के लिए अधिग्रहित की गई थीं। न्यायमूर्ति कृष्णा एस दीक्षित ने एमवी गुरुप्रसाद द्वारा दायर याचिका को आंशिक रूप से स्वीकार करते हुए कहा, "सरकार नागरिकों की भूमि को लुटेरे के रूप में कार्य नहीं कर सकती है।" न्यायलय ने आगे कहा की "मुआवजे के बिना कथित सार्वजनिक उद्देश्य के लिए निजी भूमि लेना संविधान के अनुच्छेद 300 के तहत संवैधानिक गारंटी की भावना के खिलाफ है।
अदालत ने यह भी कहा कि" राज्य और उसके तंत्र से संवैधानिक रूप से सभी मामलों में निष्पक्षता और तर्कशीलता के साथ आचरण करने की अपेक्षा की जाती है ! "
यह आदेश कर्नाटक औद्योगिक क्षेत्र विकास अधिनियम, 1966 के प्रावधानों के तहत जारी मई 2007 की अधिसूचना को चुनौती देने वाली एक याचिका में पारित किया गया हे । जनवरी 2013 में, कर्नाटक औद्योगिक क्षेत्र विकास बोर्ड (केआईएडीबी) से याचिकाकर्ताओं ने मुआवजे का भुगतान करने का अनुरोध किया था। लेकिन अधिकारियों की ओर से चुप्पी साध ली गई है। याचिकाकर्ता ने नवीन भूमि अधिग्रहण के तहत मुआवज़ा की मांग करि थी जिसे स्वीकार करते हुए अदालत ने कहा चूँकि आज तक भी मुआवजे का भुगतान नहीं किया गया है और इस बात का कोई प्रशंसनीय स्पष्टीकरण नहीं है कि डेढ़ दशक से मुआवजे का भुगतान क्यों रोका गया है, ! अदालत ने कहा "ऐसा आचरण पुष्ट करता है एक सामंती रवैये की बेड़ियों से हमारे संविधान की मूल भावना को नष्ट करने का प्रयास किया जा रहा हे । मुआवजे का भुगतान न करने में उनकी कार्रवाई न केवल अनुच्छेद 300A के तहत संवैधानिक रूप से गारंटीकृत संपत्ति अधिकारों का घोर उल्लंघन हे , बल्कि कल्याणकारी राज्य के व्यापक उद्देश्यों पर कुठाराघात भी हे । “न्यायाधीश ने यह भी कहा जब सार्वजनिक उद्देश्य के लिए निजी संपत्ति का अधिग्रहण किया जाता है तो मुआवजे का भुगतान आवश्यक होता है; कोर्ट ने कहा ऐसा नहीं करना अनुच्छेद 300ए का उलंघन हे । इसलिए राज्य को नविन भूमि अधिग्रहण के प्रावधानों के तहत याचिकाकर्ता को मुआवज़ा देने का आदेश पारित किया जाता हे !
होता भी यही आया हे की अधिग्रहण करने वाली एजेंसी वर्षों तक किसानों की भूमियों का समय सीमा में मुआवज़े का भुगतान नहीं करती और किसानों को न्यायालीन विवादों की तरफ धकेलती आयी हैं ,इसका सबसे बड़ा कारण न्यायालयों की व्यस्तता रहते मामले वर्षों तक लंबित रहना और न्यायालीन खर्च पर एजेंसियों पर कोई अंकुश नहीं होना पर हुवा करता था ! जहाँ तक सरकारी न्यायालीन खर्च की बात हे अंकुश आज भी नहीं हे और सरकार के नुमाईंदे आज भी छाती फुला कर कहते हे की सरकार की कौन सरकार ! लेकिन अब न्यायालयों ऐसे मामलों को तुरंत निपटना शुरू कर अपना रुख पूरी तरह स्पष्ट कर दिया हे !
निरसित हो चुके भूमि अधिग्रहण कानून १८९४ में कई ऐसे प्रावधान थे जो अंग्रेजों की सरकार ने अपने पक्ष को मजबूत बनाने और भूमि स्वामियों के पक्ष को कमज़ोर रखने के उद्देशय से बनाये थे ! लेकिन वर्ष २०१४ के बाद चीज़ों में बदलाव आना शुरू हो गए हैं !