राम और कृष्ण की नीतियों पर चलने वाली सत्ता, अध्यात्म को बना रही है ‘विकास’ का शिकार
क्या शहरीकरण विकास के साथ-साथ मूल्यों और संस्कृति का भी नाश कर रहा है? युगपुरुषों की बात सत्ताधारी क्यों नहीं समझ रहे? ज्वलंत मुद्दों पर जनप्रतिनिधि चुप क्यों हो जाते हैं—कभी बीमारी का बहाना, तो कभी मीटिंग में व्यस्त होने का? क्या ये मुद्दे भी आपकी मीटिंगों की भेंट चढ़ेंगे?
इंदौर (एक्सपोज़ लाइव न्यूज़ नेटवर्क): जब-जब शहर में विकास के ढोल बजे, विनाश की आहट भी साथ में गूंजती रही। विकास की आड़ में शहर की संस्कृति और अध्यात्म का गला घोंटा जा रहा है। अब शहर में गाएँ गायब हो रही हैं, और आवारा कुत्ते हर जगह! गाय को आवारा मानकर शहर से बाहर धकेल दिया गया, वहीं आवारा कुत्तों को बेचारा मानकर सड़कों पर छोड़ दिया गया। डॉग लवर्स का प्रभाव हर जगह दिखता है, लेकिन काऊ लवर्स? मौन हैं, मानो मूक दर्शक बने बैठे हों।
गौशालाएँ शहर के बाहर, संस्कृति का मखौल: शहर में हर जगह गौशाला बन सकती है, लेकिन उन्हें शहर से मीलों दूर स्थापित किया गया है, जहाँ कोई पहुंच ही न सके। शहर के आस-पास के गाँवों को शहरीकरण के नाम पर निवेश क्षेत्रों में मिला दिया गया, लेकिन गाँव की संस्कृति को बचाने की किसी को परवाह नहीं। मास्टर प्लान तो बना, पर गाँवों के लिए नहीं। राम-राज्य का सपना दिखाया गया, पर उसकी जड़ें काट दी गईं।
नाला टैपिंग से क्रिकेट और जलमग्न शहर: शहर में नाला टैपिंग का नया शौक पाला गया है। पहले नालों पर टैपिंग करो, फिर वहीं पर क्रिकेट खेलो, और कुछ ही दिनों बाद बारिश में पूरा शहर जलमग्न हो जाए। विकास की यह नई परिभाषा, जिसमें विनाश की छटा साफ दिखती है, राम और कृष्ण की नीतियों का कौन सा संस्करण है जो अध्यात्म को नष्ट करने पर तुला हुआ है?
गायें गायब, कौवे भी नहीं; सनातन पर संकट: अब शहरों में न गायें हैं, न कौवे! सनातन धर्म में श्राद्ध के लिए जिनका महत्व है, वे शायद विकास की भेंट चढ़ चुके हैं। इतना ही नहीं, कुछ स्टार्टअप सोच रखने वालों ने तो हद ही कर दी। अब श्राद्ध में कौवे की चोंच को खीर-पूरी में डलवाकर 50 रुपए की वसूली की जा रही है। यह शुरुआत भर है!
संस्कृति का भविष्य? संस्कृति के नाम पर अब शहर में महज दिखावा ही बचा है। अध्यात्म को किनारे कर दिया गया है, और इस विकास के दौर में राम और कृष्ण की नीतियाँ सिर्फ कहानियों तक सीमित रह गई हैं। ऐसे में शहर का भविष्य क्या होगा, इसका अनुमान लगाना अब मुश्किल नहीं। जब अध्यात्म और संस्कृति का ह्रास विकास की चकाचौंध में हो जाए, तो राम और कृष्ण के आदर्शों का क्या ही होगा?
भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम का दृष्टिकोण: डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम हमेशा इस बात पर जोर देते थे कि गाँवों का विकास उनके मूल स्वरूप को बनाए रखते हुए होना चाहिए। उनका मानना था कि गाँवों का विकास न सिर्फ आर्थिक दृष्टि से, बल्कि सांस्कृतिक और ऐतिहासिक रूप से भी होना चाहिए ताकि देश की विरासत सुरक्षित रहे। उनका मानना था कि भारत की आत्मा गाँवों में बसती है, और अगर गाँवों की संस्कृति और परंपराएँ छेड़ी गईं, तो देश अपनी पहचान खो देगा।
लेकिन आज सत्ताधारी डॉ. कलाम की इस सोच को नजरअंदाज कर रहे हैं। शहरीकरण के नाम पर गाँवों की मौलिकता को खत्म किया जा रहा है। गाँवों को बड़े शहरों में मिलाकर उनकी पहचान को धुंधला किया जा रहा है। सड़कों, इमारतों और निवेश योजनाओं के तहत गाँवों की जमीनों का अधिग्रहण हो रहा है, जिससे वहाँ की संस्कृति और परंपराएँ दम तोड़ने की कगार पर हैं।
हाल ही में एक वीडियो वायरल हो रहा है, जिसमें एक व्यक्ति कौवे की चोंच श्राद्ध भोजन पर लगवा रहा है और इसके बदले 50 रुपये की मांग कर रहा है। यह स्थिति क्या बताती है? ग्रामीणों से पूछने पर उनका कहना है, "बाबूजी, तम शहरों में कित्तो भी नंगो नाच करी लो, जब तमारे पुरखों को खाना खिलाने की बात आएगी ने, तो पंचतत्व वाली संस्कृति ही काम आएगी। शहरीकरण की संक्रमित बीज बोई के संस्कृति खतम कर रीया हों।"