क्या मीडिया है अतीक हत्याकांड का जिम्मेदार..?
अतीक अहमद को मारने वाले मीडिया के भेष में थे, यह साफ हो गया है। तो क्या मीडिया ही इस हत्याकांड की जिम्मेदार है। प्रत्य़क्ष रूप से न सही, लेकिन अप्रत्य़क्ष रूप से पूरी जिम्मेदारी मीडिया की है। मीडिया जिस तरह से इस पूरे मामले में कदम-दर-कदम फॉलो कर रही थी। कैमरे और माइक लेकर जिस तरह से पुलिस के सुरक्षा घेरे को बार-बार तोड़ रही थी, आखिर वही तो कारण बना अतीक और अशरफ की हत्या का।
हद है..मीडिया वालों को पता भी नहीं था कि उनके बीच हत्यारे हैं या मीडियाकर्मी
देश की सुरक्षा से समझौता क्यों, सरकार को मीडिया के लिए भी खींचना होगी लक्ष्मण रेखा
अब कई चैनलों पर ब्रेकिंग चल रही है कि माफिया का अंत..! क्या यह वाकई माफिया का अंत है..? अरे माफिया का अंत तो उसी दिन हो गया था, जिस दिन उसे उम्र कैद की सजा हुई थी। उम्रकैद यानी जीवन भर जेल की सलाखों के पीछे। तब तक किसी के पेट में कोई दर्द नहीं था, लेकिन अब जबकि माफिया ने राज उगलने शुरू किए, तो उसे मार दिया गया और जिस तरह से उसे मारा गया, उससे साफ है कि इस सब के पीछे कहीं न कहीं ऐसी शक्तियां हैं, जो नहीं चाहती थीं कि उनकी साजिशों से पर्दा उठे।
पर उसे मरवाने में किसका हाथ है। क्या उनका, जो उसे मारना चाहते थे या उनका जिन्होंने उसे मारने का मौका दिया। देखा जाए तो इस माफिया की हत्या में मीडिया पूरी तरह से जिम्मेदार है, क्योंकि मीडिया को उसके पल-पल के मूवमेंट की जानकारी रहती थी। टिड्डी दलों की तरह उसे घेरे रहते थे, हरदम। चाहे जहां माइक लेकर उसके सामने खड़े हो जाते थे और ऐसा लग रहा था कि पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों से बड़ी जांच तो मीडिया कर रही है। मेरे मीडिया के कई साथियों को यह बात काफी खराब लग सकती है। ज्यादातर लोग मेरे खिलाफ भी हो जाएंगे, लेकिन हकीकत यही है कि मीडिया अपने दायरे से इतना बाहर निकल चुकी है कि आज उसकी लापरवाही या यूं कहें कि बेवजह हर मामले में नाक घुसाने की आदत ने एक ऐसे व्यक्ति की जान ले ली, जो देश की सुरक्षा से जुड़े कई बड़े राज खोलने वाला था।
वह व्यक्ति जो आधा दर्जन बार विधायक रहा, दो बार सांसद रहा, मगर उसका अंत जिस तरीके से हुआ, वैसा होना इस देश की सुरक्षा एजेंसियों को कतई मंजूर नहीं था। उसके पास कुछ ऐसी महत्वपूर्ण इंटेल थीं, कुछ ऐसी क्लासिफाइड जानकारियां थीं, जो देश की सुरक्षा और अखंडता के खिलाफ हो रही साजिशों को बेनकाब करने वाली थीं। उसने जानकारियां उगलना शुरू भी कर दी थीं। एक दिन पहले ही पाकिस्तान का कनेक्शन सामने आया, हथियार और कारतूस बरामद हुए।
उसकी जानकारियों से इस देश के कई बड़े चेहरों, कुछ सफेदपोश लोगों के कनेक्शन आईएसआई से लेकर खालिस्तान तक से जुड़ने की संभावना थी। नेपाल से लेकर पाकिस्तान तक फैले हुए इस नेटवर्क की कड़ियां कहां-कहां से होकर गुजर रही थीं, यह बातें अब सामने बस आने ही वाली थी और उसे मार दिया गया।
इस माफिया को जिस दिन से साबरमती जेल से निकालकर प्रयागराज लाने की तैयारी शुरू हुई, उसी दिन से मीडिया ने इस तरह से कमर कस ली, मानो इस देश में और कोई दूसरी खबर ही ना हो, कोई दूसरी समस्या ही ना हो, किसी अन्य बात से कोई मतलब ही ना हो। एक-एक कदम उसके पीछे लगे रहे। गाड़ियां लेकर फॉलो करते रहे, सैकड़ों बार सुरक्षा घेरा तोड़ा। इसके बाद एक अंतहीन सिलसिला शुरू, अतीक कहां जा रहा है, कहां आ रहा है, क्या कर रहा है, क्या खा रहा है, क्या पी रहा है, यहां तक की टॉयलेट कैसे कर रहा है, यह तक दिखाया जा रहा था।
सुरक्षाकर्मी और पुलिस वाले भी क्या करते जब इस हद तक मीडिया की नाक इस मामले में घुस गई थी। कौन कैमरा और माइक पकड़े घुस रहा है, कौन सवाल कर रहा, कौन पीछा कर रहा, सुरक्षाकर्मी जानते तक नहीं थे। न जाने कौन-कौन माइक और आईडी लिए चला आ रहा। और जब उसकी हत्या भी हुई तो किन लोगों के जरिए, उसी मीडिया के ही बीच में उन्हीं के भेष में छिपे लोगों से। बात कड़वी जरूर है, लेकिन हकीकत यही है। हत्यारे मीडिया के लोगों के ही बीच घुसे थे, उन्हीं का वेश धरके आए थे, माइक थामे थे और सवाल पूछने के बहाने ताबड़तोड़ फायरिंग करने लगे। हत्या के बाद अब मीडिया चिल्ला रही है कि हत्या के पीछे कौन लोग हैं, क्या कारण है, कहां से आए ये लोग और कैसे मार डाला..?
अरे इस सब के लिए जिम्मेदार हम ही लोग हैं। हम मीडिया वाले ही इस पूरे हत्याकांड के जिम्मेदार हैं। और मैं यह पूरी जिम्मेदारी से कह रहा हूं कि यदि मीडिया ने इस मामले में इस तरह से नाक ना घुसाई होती, इस तरह से हर कदम पर उसका पीछा ना किया होता, पुलिस और सुरक्षाकर्मियों को अपना काम करने दिया होता, तो आज उसकी ऐसी बेरहमी से हत्या ना हुई होती। देश के कई सफेदपोश और ऐसे लोगों के चेहरों से नकाब हट गए होते, जिन्होंने इस देश की अस्मिता, सुरक्षा, अखंडता और एकता के साथ पड़ोसी मुल्कों से समझौता कर लिया है या यूं कहे कि बेच दिया है।
आज इस माफिया की मौत पर कई लोग मगरमच्छी आंसू भी बहा रहे हैं, मगर इन लोगों के बैकग्राउंड में झांका जाए तो साफ हो जाता है कि इनमें से कई वे हैं, जिन्होंने हमेशा देश की एकता-अखंडता और सुरक्षा से समझौता किया है, उस पर सवालिया निशान उठाए और उसे गरियाया है। आज ये लोग भले ही रो रहे हों कि कानून व्यवस्था खत्म हो गई है, हकीकत यही है कि मगरमच्छ की आंसू बहाने वालों में से कई लोग भीतर-ही-भीतर बहुत खुश हो रहे होंगे कि उनके चेहरे से नकाब नुचने से बच गया।
अंत में एक बार फिर कहना चाहूंगा कि मीडिया का दायरा तय होना चाहिए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता इस देश के संविधान ने दी है, लेकिन इस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की कीमत यदि देश की अखंडता और उसकी सुरक्षा हो तो ऐसी अभिव्यक्ति पर लगाम लगाई जाना बेहद जरूरी है। और सरकार का यह पहला कदम होना चाहिए कि एक दायरा तय होना चाहिए कहां तक खबरें दिखाई जाएंगी और किस लाइन के बाद सुरक्षा एजेंसियों, पुलिस या सरकार के कामों में दखल दिया जाना बंद होगा।
खबरें दिखाई जाना चाहिए, दिखा भी रहे हैं, पर देश की सुरक्षा से खिलवाड़ नहीं...कतई नहीं..।
अब मीडिया ट्रायल पर लगाम लगाई जाना चाहिए...वैसी ही, जैसी कोर्ट ने लगा रखी है..।
- पवन सिंह राठौर, एडिटर-इन-चीफ (एक्सपोज लाइव)