मध्यप्रदेश शासन के हाथ से करोड़ों की भूमि फिसली
ग्राम खजराना की अवैध मल्टी के मामले में हाईकोर्ट में चल रहे केस में इंदौर प्रशासन की लापरवाही या यूं कहें कि बिल्डर से मिलीभगत से करोड़ों की जमीन शासन के हाथ से निकलती नजर आ रही है। इस पूरे मामले में सबकुछ प्रशासन के पक्ष में है, लेकिन प्रशासन जमीन छोड़ने को आतुर नजर आ रहा है।
प्रशासन ने हाईकोर्ट में नहीं रखा सही पक्ष, अपनी ही याचिका में मुंह की खाई
जनता को नुकसान और बिल्डर को दोहरा फायदा, प्रशासन की नीयत शक के घेरे में
द एक्सपोज लाइव न्यूज नेटवर्क, इंदौर। Indore News.
ग्राम खजराना के सर्वे नंबर 543 का जो त्रुटिपूर्ण उप विभाजन कभी राजस्व अभिलेखों में हुआ ही नहीं, उसको दुरुस्त करने के राज्स्व मंडल के आदेश को हाईकोर्ट में याचिका क्रमांक WA/873/22 में प्रशासन द्वारा सही पक्ष नहीं रखने पर शासन के हाथ से करोड़ों की भूमि फिसल गई है।
इस पूरे मामले में गरीब जनता को नुकसान और बिल्डर को दोहरा फायदा होता नजर आ रहा है। यदि प्रशासन, कोर्ट द्वारा आदेश में दी गई छूट का लाभ लेकर सही पक्ष कोर्ट के समक्ष रखता है, तो इस नुकसान बच सकता है। पर प्रशासन यह जमीन बिल्डर को देने को इतना आतुर दिख रहा है कि दस्तावेजों में पुरानी तारीखों में फेरबदल करने की कोशिश की जा रही है। दस्तावेजों में दर्ज असल रिकॉर्ड को भी बदला जा रहा है। इससे प्रशासन की नीयत पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं।
यह है हाईकोर्ट का ताजा आदेश
हाईकोर्ट ने रेवेन्यू कोर्ट के उसी आदेश को यथावत रखा, जिसमें कहा गया था कि राजस्व रिकॉर्डों को संलग्न ट्रेसमैप और दस्तावेजों के अनुसार सुधारा जाए। जबकि बिल्डर की तरफ से संलग्न दस्तावेज और ट्रेसमैप में फेरबदल साफ नजर आ रहा है। इसके आधार पर दिए गए राजस्व कोर्ट के निर्णय को ही प्रशासन ने हाईकोर्ट में चुनौती दी थी, लेकिन प्रशासन की तरफ से पुख्ता साक्ष्य नहीं पेश किए गए और न ही अपना पक्ष दमदारी से रखा गया, जिससे हाईकोर्ट ने रेवेन्यू कोर्टे के आदेश पर मुहर लगा दी।
इस तरह हुई दस्तावेजों में हेराफेरी
दरअसल मामला ग्राम खजराना की सर्वे नंबर 543 का है, जिसका राजस्व विभाग के नक्शे के अनुसार 12 अगस्त, 1999 तक विभाजन नहीं हुआ था। राजस्व मंडल ने अपने आदेश में इस भूमि का विभाजन 8 फरवरी, 1993 को होना और 7 सितंबर 1995 को इस भूमि को सरदार पिता सुलेमान द्वारा विक्रय करना बता दिया। जबकि इस अवधि में उक्त भूमि अधिनियम 1894 के तहत प्राधिकरण की योजना 53 के अंतर्गत अधिग्रहित होकर, इसके संबंध में धारा 4, 6 एवं धारा 11-A में अवॉर्ड क्रमशः वर्ष 1985, 1986 और 3 अक्टूबर 1988 को होकर 16 सितंबर 1990 को पूरी भूमि का कब्जा राजस्व दल ने मौके पर जाकर प्राधिकरण को सौंप दिया था।
असल कहानी कुछ और ही है
साफ़ है कि 9 अगस्त 1988 का कब्ज़ा पंचनामा संदेहास्पद है। जब यह भूमि सक्षम अधिकारी के 20 अक्टूबर 1983 के पत्र अनुसार योजना 53 में अधिग्रहण करने हेतु अनापत्ति दे दी थी और उक्त तारीख तक इस भूमि के संबंध में प्रकरण नंबर 675 (20) गणेश पिता भागीरथ के नाम से दर्ज था, तो फिर सीलिंग कानून के प्रभावशील रहते यह भूमि सरदार पिता सुलेमान के नाम पर हस्तांतरित होना और सरदार पिता सुलेमान से 23 अप्रैल 1984 को सीलिंग अधिनियम की धारा 6 के तहत विवरणनी स्वीकार करना, संदेहास्पद है। जबकि 24 अक्टूबर 1983 को अपर कलेक्टर को इस आशय का अनापत्ति पत्र जारी कर दिया गया कि प्राधिकरण योजना 53 के लिये भूमि का अधिग्रहण करता है, तो उसको कोई आपत्ति नहीं हैं।
जनप्रतिनिधियों की कोशिशों पर पानी फिरा
कुल मिलाकर प्रशासनिक अधिकारियों की बिल्डर को लाभ पहुंचाने वाली नीति ने क्षेत्रीय विधायक महेंद्र हार्डिया, एमआईसी मेंबर राजेश उदावत और तत्कालीन पार्षद संजय कटारिया, दिनेश सोनगरा के उन सभी प्रयासों पर पानी फेर दिया, जो उन्होंने शासन द्वारा राजसात मल्टी को बचाने के लिए और 24 वर्ष से बसी गरीबों की बस्ती को बचाने के लिय किया था।