धर्म और संस्कृति का पालन: छुट्टी नहीं, शास्त्रों के अनुसार
आधुनिकता के इस युग में जहां त्योहार और धार्मिक अनुष्ठान सुविधानुसार मनाए जा रहे हैं, यह आवश्यक है कि हम अपनी संस्कृति और परंपराओं को शास्त्रों के अनुसार ही निभाएं। कन्यापूजन जैसे पवित्र अनुष्ठान को छुट्टियों या सुविधाओं के हिसाब से नहीं, बल्कि शास्त्रीय नियमों और पंचांगानुसार ही किया जाना चाहिए। यह लेख इस बात पर प्रकाश डालता है कि कैसे हमारी संस्कृति और धार्मिकता का वास्तविक पालन ढोंग से परे जाकर शुद्ध आत्मसात् के साथ होना चाहिए।
द लाइव न्यूज़ नेटवर्क इंदौर
"धर्मो रक्षति रक्षितः।"
(अर्थ: जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है।)
कल रविवार था और विभिन्न स्थानों पर कन्या पूजन का आयोजन किया गया। मुझे भी व्हाट्सएप पर कई लोगों द्वारा आग्रह प्राप्त हुए, जो किसी विशेष संगठन से जुड़े थे। मैंने जब व्यक्तिगत रूप से उनसे बात की और पूछा कि चतुर्थी (रविवार) को ही क्यों कन्या पूजन का आयोजन किया जा रहा है, तो उत्तर में एक ही बात सुनने को मिली – "छुट्टी है, इसलिए।"
यहां मैं उनके कन्या पूजन के आग्रह का विरोध नहीं कर रहा, बल्कि उन लोगों की मानसिकता का विरोध कर रहा हूँ जो हमारे त्योहारों और धार्मिक अनुष्ठानों को सुविधानुसार ढालना चाहते हैं। हमारी संस्कृति और त्योहार पंचांगानुसार मनाए जाते हैं, न कि किसी विशेष दिन की छुट्टी के अनुसार।
"उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।"
(अर्थ: आत्मा को उठाने का कार्य स्वयं करें, उसे गिरने न दें।)
हमें अपनी संस्कृति को बचाने की आवश्यकता है। धर्म और संस्कृति का पालन हमारी सुविधाओं के अनुसार नहीं किया जा सकता; यह तो उसे धारण करके ही होता है। मैंने एक मित्र का उदाहरण दिया, जो दैनिक पूजा-पाठ में भाग नहीं लेते, परंतु उनके चरित्र में सनातन धर्म के गुण स्पष्ट रूप से दिखते हैं। यह सच्ची धार्मिकता है, जो आंतरिक है, दिखावे पर आधारित नहीं।
कन्या पूजन का आयोजन केवल छुट्टी के दिन नहीं होना चाहिए। इसे समझना जरूरी है कि नवरात्रि के दौरान अष्टमी या नवमी के दिन कन्या पूजन करना शास्त्रों के अनुसार होता है, न कि रविवार को किसी संगठन के कहने पर। यह केवल एक दिखावे का धार्मिकता का प्रतीक नहीं बनना चाहिए।
"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।"
(अर्थ: जब-जब धर्म की हानि होती है, तब-तब धर्म की रक्षा के लिए मैं अवतरित होता हूँ।)
इसलिए, हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कन्या पूजन का असली उद्देश्य और उसकी पवित्रता को समझें। क्या हम केवल छुट्टी के दिन यह पूजा करके अपनी धार्मिकता साबित करना चाहते हैं, या इसके पीछे छिपे उद्देश्य को आत्मसात कर रहे हैं? कहीं हम अमेरिकन संस्कृति की तरह इसे 'कन्यापूजन डे' तो नहीं बना रहे?
सनातन धर्म के अनुयायी सदियों से पंचांगानुसार त्योहारों और अनुष्ठानों का पालन करते आए हैं। कन्या पूजन केवल दिखावे के लिए नहीं, बल्कि अपने कुल की परंपरा के अनुसार अष्टमी या नवमी को करना चाहिए। यह भी आवश्यक है कि देवीस्वरूपा कन्याओं के साथ बालक को बटुक भैरव के रूप में भी पूजा जाए, जैसा कि शास्त्रों में वर्णित है।
"नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।"
(अर्थ: असंयमी व्यक्ति में बुद्धि नहीं होती, और न ही ध्यान की भावना होती है।)
अंततः, हमें अपने संस्कारों की पुनः खोज करनी होगी। ये संस्कार हमें धार्मिक गुरुओं के सानिध्य और आशीर्वाद से प्राप्त होंगे, न कि किसी संगठन या संस्थान से। वैदिक कर्मकांड, उपासनाकांड और ज्ञानकांड को समझना और आत्मसात करना ही सच्ची धार्मिकता है।
प. सन्देश व्यास एक अद्भुत चित्रकार ,स्टेज आर्टिस्ट ,लेखक एवं समाजसेवी हैं ,वे धर्म,संस्कृति और सनातन पर अपनी बेबाक राय रखने के लिए भी जाने जाते हैं ! शहर के सबसे पुराने सांस्कृतिक गरबा महोत्सव "साकेत ना गरबा " में एक महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाते हैं !