गर्मी से बचने के लिए सड़कों पर कृतिम वर्षा ,चौराहों पर नेट की चादर ,लेकिन पेड़ नहीं लगाने का भी संकल्प

पिछले दिनों पुरे देश में पड़ रही खतरनाक गर्मी से बचने के लिए नए नए जतन,कही पानी की बारिश तो कहीं चौराहों पर नेट , विकास के नाम पर लगातार हो रही पेड़ों की कटाई ,पेड़ लगाने का संकल्प नदारद ,सैकड़ों अपीलें ,सोशल मीडिया पर पेड़ों के फायदे मौजूद ,लेकिन किसी भले आदमी ने पेड़ लगाने का नहीं लिया संकल्प , इससे बड़ा मूर्खता का क्या उदहारण हो सकता हे ? अब जा कर एक मंत्री ने करी 51 लाख पौधे लगाने की घोषणा

गर्मी से बचने के लिए सड़कों पर कृतिम वर्षा ,चौराहों पर नेट की चादर ,लेकिन पेड़ नहीं लगाने का भी संकल्प
courtesy :tehran times

द एक्सपोज़ लाइव न्यूज़ नेटवर्क इंदौर

पूरा देश इस बार गर्मी से बेहाल हे ,जिला प्रशासन से ले कर कई सामाजिक संघठन नए नए जतन करते दीख रहे हैं ,सोशल मीडिया पर रील बना बना कर वायरल की जा रही हे ,कहीं बेशकीमती पानी का छिड़काव किया जा रहा हे तो कहीं राहगीरों के लिए हरे नेट की चादर चौराहों पर लगाई जा रही हे ! कोई भी इस बात को समझने को तैयार नहीं के ऐसे हालात आखिर बने तो बने क्यों ? अभी महामारी को गए समय नहीं हुआ ,बड़ी बड़ी बातें लोगों ने करी ,अपनों को खो दिया ,लगा जैसे अब सब कुछ ठीक हो जायेगा ,लेकिन इंसान कितना दगाबाज हे ये अब मालूम पड़ने लगा ,भूलने की आदत ,मोके पर बड़ी बड़ी डींगे हांकने वाला इंसान फिर औकात के बाहर जाने लगा ! तापमान 47 के आसपास ,कौन ज़िम्मेदार कोई नहीं समझ पा रहा ! आम आदमी हो या सरकार ,दोष किसका ? क्या यही ज़िम्मेदारी हे हमारी ? औलादों के लिए हम दूसरों का गला काट उनके लिए रियासतें बनाने में लगे हैं ,महामारी में इस रियासत की औकात सबने देखि , अमीर हो या गरीब ज़रूरत सिर्फ एक ही ,जीवन जैसे तैसे बचा लें ,भगवान से दुआ ,प्रार्थना भी ,और ईश्वर ने आशीर्वाद भी दिया और जान बचा ली ,लेकिन इंसान तो इंसान हे ,शायद उस उदृश्य सत्ता से भी बड़ा ,फिर वो व्यापारी हो ,नौकरीपेशा या सरकार में बैठा जनप्रतिनिधि हालातों के लिए तो सभी ज़िम्मेदार हैं ,आम आदमी भी विकास की अंधी दौड़ में पागल और सरकारें ,जनप्रतिनिधि अधिकारी भी उसी का हिस्सा !

विकास या विनाश ?

जिस विकास की परिभाषा आज हम समझ रहे हैं ,क्या वो वाक़ई विकास हे या आने वाली पीढ़ियों के साथ धोखा ? आज आम आदमी हो या सरकारें ,विकास आजकल पंच लाइन बन चूका हे ,चारों तरफ सीमेंट के जंगल को ही विकास मान लिया जाने लगा हे ,आम आदमी अपनी बहुमज़ीला इमारतों को विकास कहने लगा और सरकारें भी खूबसूरत ,पेड़ विहीन सड़कों के छायाचित्र अख़बारों में दे कर विकास की पर्याय बन चुकी हैं ,रही बात आम आदमी की तो भला उसकी जितनी बुद्धि हे वह समझेगा भी उतना ही ,बात कड़वी ज़रूर हे लेकिन सच की फितरत भी तो यही हे! विकास के नाम चारों और अनियंत्रित अधिग्रहण ,अपनी महत्वकांशा के लिए बिना ज़रूरत ज़मीन का अधिग्रहण ,थोथे दिखावे के चलते कहीं भी विकास ,कृषि का नाश ,प्रकर्ति का विनाश ,और जनता फिर भी भी खुश ,तो विकास तो ऐसे ही होगा ना ! दोष सरकार का भी नहीं ,हम विकास को समझते ही ऐसे हैं ! बेशक  शुद्ध हवा ,प्रकर्ति ,पानी ,दाना पानी अभी तो मिल ही रहा हे ,जब नहीं मिलेगा तब फिर उस उदृश्य सत्ता से भीख में जीवन मांग ही लेंगे ,और फिर एक बार धोखा देने को तैयार हो जायेंगे ,भावी पीढ़ी के लिए इतना तो जमा कर ही लिया हे की वो प्राकर्तिक तरीके को छोड़ कृतिम ज़िन्दगी तो जी ही लेंगे ! आज विकास के लिए ज़िम्मेदार एजेंसियां विकास तो कर रही हैं लेकिन विकास के लिए जो विनाश साथ ले कर चल रही हे उस और भी ध्यान देने की ज़रूरत हे ! 

NHAI ,विकास प्राधिकरण ,नगर निगम जैस विभागों पर लगाम कसने की ज़रूरत 

हाल ही में सरकार की मंशा और जनता को बताई जा रही विकास की परिभाषा को सार्थक करने के लिए शहर के आसपास NHAI द्वारा सड़कों का जाल बिछाया जा रहा हे ,बेशक किसने इसकी मांग की और कितनी मांग की इसका कोई आंकड़ा विभाग के पास उपलब्ध नहीं हे , न ही कोई पूर्व सर्वे किसी के पास उपलब्ध हे ,किसानों का लगातार विरोध ,सैकड़ों पेड़ों की बलि ,कृषि व्यवसाय तहस नहस लेकिन भला ज़िद तो ज़िद हे  और फिर हे भी केंद्रीय एजेंसी ! पेड़ों की बलि भी लेंगे और कृषि को ख़तम भी करेंगे ,जनता भले विरोध करे ,कृषि मंत्रालय ने तो कभी विरोध नहीं करा तो भला हम क्यों सुने ? भले ही यहाँ की जलवायु/मिट्टी कृषि के लिए उपयुक्त हे ,लेकिन सड़क भी तो ज़रूरी हे ,खाद्यान तो आयात कर लिया जायेगा ,भले ही महंगे भाव में ,किसान मज़दूरी कर ही लेगा ,बंज़र भूमि तो बंजर ही रहेगी ,अगर वहां उद्योग लग गए तो कौन सा उद्योगपति वहां आएगा ? और उद्योग नहीं लगेंगे तो विकास को परिभाषित कैसे किया जायेगा ? रही बात किसानों के विरोध की और सिंचित भूमि के अधिग्रहण की तो किसानों को मुआवज़ा भी तो हम दे ही रहे हैं ! 

यही हाल नगर निगम का हे ,शहर की विकास योजना 1947 के संभावित आंकड़ों को ले कर बनाई जा रही हे ,60 लाख की जनसँख्या और उनकी ज़रूरत सड़कें और मकान ही तो हैं ,हवा पानी तो भगवान दे ही देगा ,तपते सूरज से और तपती धरती से बचने के लिए हम जनता से बाहर नहीं निकलने की अपील तो करेंगे ही ना ,खाद्यान और कृषि की ज़रूरत तो सिर्फ आपदा में ही पड़ती हे , जिसका सामना यदाकदा  ही करना पड़ता हे ! भले बुद्धिजीवी गावों के मास्टर प्लान की मांग कर रहे हैं ,वहां शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा की मांग कर रहे हैं ,अगर ऐसा हुआ तो शहर की जनसँख्या ६० लाख तक कैसे पहुंचेगी ? और अगर नहीं पहुंची तो हमारी सोच और योजना का भला क्या होगा ? हम गलत नहीं साबित हो जायेंगे ? स्वछता में शहर को नंबर 1 जनता ने बनाया हे ,अगर पेड़ लगाना हे तो जनता को जाग्रत होना पड़ेगा ,भले ही उनके पास जगह नहीं लेकिन लगाना तो जनता को ही पड़ेगा और देख रेख भी उन्ही को करनी होगी ! हमने हरियाली और प्राकर्तिक स्रोतों को बचाने और सहजने के लिए कानूनी प्रावधान किये हैं लेकिन अमले की कमी के कारण क्रियान्वन नहीं हो प् रहा ये अलग बात हे !   

जनहित की बात करते करते सरकारी कॉलोनाइजर बन चूका विकास प्राधिकरण की भी यही स्थिति हे ,बिना सोचे समझे फ्लाई ओवर बनाने की ज़िद कर चूका विकास प्राधिकरण अब 79 गांव पर ताक लगाए बैठा हे ,अभी निवेश क्षेत्र में लिया गया हे फिर सभी गांव शहरी सीमा में आ जायेंगे ,फिर हम भी तो वहां विकास योजना लाएंगे ! पेड़ काटेंगे ,फिर पुरे रीत रिवाज़ के साथ उन्हें ऐसी जगह स्थानान्तरित कर देंगे के ढूंढते रह जाओगे ! और विकास के पर्याय तो हम भी हैं ,फिर भला पेड़ों और कृषि से हमें क्या ,मुआवज़े के सैकड़ों विवाद आज न्यायलय में चल रहे हैं ,संख्या हज़ारों में हो जाएगी इससे ज़्यादा और क्या ?        

"विकास योजनाएं अलग अलग विभाग अपने स्तर पर सरकार के निर्देशों पर बना रहे हैं ,विकास भी सभी को दीख रहा हे ,थोड़ी बहुत गलतियां हो सकती हैं जिन्हे समय समय पर दूर कर लिया जाता हे ,प्राकृतिक सम्पदा को बचाना हमारा कर्त्वय हे और में इसका पक्षधर हूँ ,विकास योजनाओं में जनप्रतिनिधियों को भी सम्मिलित किया जाना चाहिए ताकि जनता के पक्ष को योजना में सम्मिलित किया जा सके" ! महेंद्र हार्डिया ( पूर्व मंत्री एवं विधायक ,म प्र शासन )